गज़ल: बात गर जिद पे अड़ गई होती |
बात गर जिद पे अड़ गई होती |
तो सारी शान झड़ गई होती ||
अकेला चाँद नूर क्या देता |
चाँदनी गर बिछड़ गई होती ||
जमीर ने बचा लिया हमको |
वर्ना आदत बिगड़ गई होती ||
ज़फा से बच गई दिल की दीवार |
दरार वर्ना पड़ गई होती ||
ज़िंदगी हार ही जाती बाज़ी अगर ||
मौत आगे जो बढ गई होती ||
बढाता वक्त न अपनी रफ्तार |
तो ये दुनियाँ पिछड़ गई होती ||
अपना होता न गर खुदाकंचन जी |
साँस'राजकुमार'उखड़ गई होती ||
- लेखक (प्रकाशक) -
राजकुमार देशमुख (चुर्नाधार)
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