गज़ल: बात गर जिद पे अड़ गई होती |
बात गर जिद पे अड़ गई होती |

तो सारी शान झड़ गई होती ||


अकेला चाँद नूर क्या देता |

चाँदनी गर बिछड़ गई होती ||


जमीर ने बचा लिया हमको |

वर्ना आदत बिगड़ गई होती ||


ज़फा से बच गई दिल की दीवार |

दरार वर्ना पड़ गई होती ||


ज़िंदगी हार ही जाती बाज़ी अगर ||

मौत आगे जो बढ गई होती ||


बढाता वक्त न अपनी रफ्तार |

तो ये दुनियाँ पिछड़ गई होती ||


अपना होता न गर खुदाकंचन जी |

साँस
'राजकुमार'उखड़ गई होती ||
!! जय माता दी !!
- लेखक (प्रकाशक) -
राजकुमार देशमुख (चुर्नाधार)
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